हमारे बारे में

छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक विश्वसनीय न्यूज पोर्टल है, जिसकी स्थापना देश एवं प्रदेश के प्रमुख विषयों और खबरों को सही तथ्यों के साथ आमजनों तक पहुंचाने के उद्देश्य से की गई है।

Gustakhi Maaf: गिले शिकवे भूल के दोस्तों…


-दीपक रंजन दास
होली का पर्व हो और हिन्दी फिल्मों का जिक्र न आए तो यह बड़ी नाइंसाफी होगी। हिन्दी फिल्मों ने होली गीतों को एक सुन्दर स्वरूप प्रदान किया. होली गीतों के माध्मय से बॉलीवुड ने न केवल भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोकगीतों को आगे बढ़ाया बल्कि होली के ऐसे सुन्दर संदेश दिए जो तारीख लिख सकते हैं। लगभग 50 साल पहले एक फिल्म आई थी शोले. इन पांच दशकों में भी इस फिल्म का आकर्षण कुछ कम नहीं हुआ है। ओटीटी पर जहां गुण्डा मतलब गाली होता है, वहीं शोले में दुर्दांत दस्यु गब्बर ने फिल्म में कोई गाली नहीं दी। उलटे गब्बर ने सुन्दर ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ का परिचय दिया। याद कीजिए… अब गोली खा, कौन चक्की का आटा खिलाते हैं रे… जैसे संवादों को। यहां डाकू कम और एक कैरेक्टर ज्यादा दिखाई देता है। इसी फिल्म का एक गीत है – ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं, रंगों में रंग मिल जाते हैं। गिले शिकवे भूल के दोस्तों, दुश्मन भी गले मिल जाते हैं..’ आज जब हम चारों तरफ नफरत की फसल उगाते हैं तो इन गीतों की प्रासंगिकता बढ़ जाती है। ‘रंग बरसे..’ जैसे गीत बेशक टॉप पर चल रहे हों पर 60 और 70 के दशक के होली गीतों का माधुर्य आज भी लोगों को आकर्षित करता है. नफरत इस धरती पर तभी से है जब से इंसान ने सोचने-समझने की शक्ति हासिल की। पर नफरत के बीज बोने वालों को सनातन समाज ने कभी भी अच्छी नजर से नहीं देखा। विभिन्न शास्त्रों और ग्रंथों में ऐसी शक्तियों का विनाश होते ही दिखाया गया है। इसलिए आज जब नफरत के बूते पर राजनेता चुनकर आने लगे हैं तो चिंता स्वाभाविक है। नफरत के तात्कालिक फल कितने भी मीठे क्यों न हों, उसके दीर्घकालिक परिणाम हमेशा भयावह होते हैं, भयानक होते हैं। नफरत की यह चिंगारी समाज को जला कर खोखला कर देती है। उसका सामाजिक ढांचा तितर-बितर हो जाता है। नफरत का भाव इतना संक्रामक है कि एक बार किसी के मन में बैठ गया तो फिर पहले समाज, फिर मोहल्ला और अंत में परिवार इसकी भेंट चढ़ जाता है। अपने आसपास नजर डालिए तो ऐसे सैकड़ों परिवार देखने को मिल जाएंगे जहां भाई-भाई आपस में बात नहीं करते। बच्चे माता-पिता को प्रताडि़त करते हैं, संपत्ति और रुपये पैसों के लिए घर वाले ही एक दूसरे के खिलाफ षडयंत्र रचने लगते हैं। कोर्ट कचहरियों के मुकदमे बताते हैं कि आधे से ज्यादा मामले परिवारों के बीच के हैं। आपसी रंजिश का यह भाव होली तक भी आता है। पुलिस इस समय खास चौकन्नी होती है। होली अब गले मिलने का नहीं बल्कि गला काटने का बहाना हो चला है। होली पर पुलिस की सबसे बड़ी चिंता यही होती है कि कहीं कोई किसी पर जानलेवा हमला न कर दे। होली शांति से निपट जाए तो पुलिस चैन की सांस लेती है। इस परिपाटी को बदलने की जरूरत है।