हमारे बारे में
छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक विश्वसनीय न्यूज पोर्टल है, जिसकी स्थापना देश एवं प्रदेश के प्रमुख विषयों और खबरों को सही तथ्यों के साथ आमजनों तक पहुंचाने के उद्देश्य से की गई है।
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-दीपक रंजन दास
सरकारी अस्पतालों में नैदानिक (डायग्नोस्टिक) उपकरणों की किल्लत कोई नई बात नहीं है. इसकी वजह से रोगी को निजी डायग्नोस्टिक सेंटरों में जाना पड़ता है. न्यायधानी बिलासपुर के छत्तीसगढ़ इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस (सिम्स) में फिलहाल बेसिक नैदानिक उपकरण की किल्लत है. पेट की लगभग हर दूसरी बीमारी में अल्ट्रासाउंड की जरूरत पड़ती है. यहां एक मशीन है जिसकी उम्र खत्म होने को है. दूसरी मशीन मंगवाई गई पर उससे काम नहीं हो पा रहा है. लिहाजा यहां हजारों की संख्या में मरीजों की वेटिंग चल रही है. वेटिंग एक महीने तक हो रही है. जाहिर है, मरीज इतनी लंबी अवधि तक न तो तकलीफ में रह सकता है और न ही चिकित्सकीय दृष्टि से यह उचित है. उसे बाहर ही जांच करवाना होगा. अल्ट्रासाउंड वह मशीन है जो कई मुसीबतों से घिरा होता है. पहली बात तो यह कि यह मशीन महंगी है. नई 3डी/4डी अल्ट्रासाउंड मशीन 80 लाख रुपए तक की आती है. रीफर्बिश्ड (बदले गए पुरजों के साथ पुरानी मशीन) 50 हजार रुपए से 30 लाख रुपए तक की आती है. पर सवाल केवल पैसों का नहीं है. प्रसव पूर्व लिंग जांच के कारण सरकार इसकी कड़ी निगरानी करती है. कमी रेडियोलॉजिस्ट की भी है जो इन मशीनों का सही उपयोग कर सकें. फिलहाल अधिकांश अस्पतालों में जांच कोई और करता है और रेडियोलॉजिस्ट आकर उसके आधार पर रिपोर्ट तैयार कर उसपर हस्ताक्षर कर देता है. पर विशेषज्ञों का मानना है कि यह व्यवस्था सही नहीं है. विशेषज्ञ स्वयं सोनोग्राफी करे तो वह कई चीजों को देख पाता है, संदिग्ध स्पाट्स की गहराई से जांच कर सकता है. केवल तस्वीरें देखकर इसका सही-सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. इसलिए कई बार गूढ़ बातें जांच रिपोर्ट से छूट जाती हैं. रेडियोलॉजिस्ट की उपलब्धता के आँकड़े चिंताजनक हैं – भारत में वर्तमान में 140 करोड़ से अधिक लोगों की आबादी की सेवा के लिए लगभग 20,000 रेडियोलॉजिस्ट हैं. इसका मतलब है कि प्रति 1,00,000 व्यक्तियों पर सिर्फ एक रेडियोलॉजिस्ट. इसलिए अब नैदानिक सेवा में आर्टिफिशल इंटेलीजेंस को विकसित करने की कोशिशें हो रही हैं. पर चिकित्सक इसपर पूरा भरोसा कर पाएं, इसमें अभी वक्त लगेगा. इलाज से जुड़ी तमाम सरकारी चेष्टाओं में नैदानिक सेवा को हाशिए पर रखा गया है. इसमें सुधार की आवश्यकता है. अधिकांश जांचें या तो सरकारी योजनाओं में शामिल ही नहीं हैं या फिर उसकी कीमतें इतनी कम रखी गई हैं कि रोगी को उसका लाभ नहीं मिल पाता. रोगी का समय पर और सही निदान हो जाए तो अकसर उसका इलाज भी काफी आसान हो जाता है. अंदाजे में, लक्षणों के आधार पर की जाने वाली चिकित्सा कई बार रोगी के लिए मुसीबत का कारण बन जाती है. रोग बढ़ जाता है और फिर आपातकालीन चिकित्सा करनी पड़ती है जो महंगी पड़ती है और जोखिम भी बढ़ जाता है. आयुष्मान योजना की सफलता के लिए नैदानिक सेवाओं को भी गंभीरता से लेने की जरूरत है.