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Gustakhi Maaf: इसने बताया, उसने बताया, किसने बताया


-दीपक रंजन दास
एक कहावत है – कौवा कान ले गया। किसी ने किसी से कहा और वह बिना अपना कान टटोले कौवे के पीछे भागने लगा। कुछ ऐसा ही है देश की जांच एजेंसियों का हाल। उनके पास सबूत के नाम पर यही सब कुछ है। एक से पूछताछ की तो उसने दूसरे का नाम बताया। दूसरे को पकड़कर पूछताछ की तो उसने तीसरे का नाम ले लिया। जब तीसरे को पकड़कर पूछा तो उसने चौथे का नाम ले लिया। फिर चौथे का नाम लिया तो वह पंचायत पहुंच गया। अब वहां बहस हो रही है कि क्या चौथे को पकडऩा जरूरी है। आखिर सिर्फ बातों के आधार पर कैसे किसी पर जुर्म तय किया जा सकता है या उसकी गिरफ्तारी की जा सकती है? न्यायिक भाषा में इसे अनुश्रुत साक्ष्य कहते हैं जिसे साक्ष्य नहीं माना जा सकता। इसे पुष्ट करने के लिए वास्तविक या ठोस साक्ष्य जुटाने पड़ते हैं। इसे जुटाने में सालों लग सकते हैं। कभी-कभी ठोस साक्ष्य मिलते भी नहीं। तब आरोपों को ध्वस्त कर दिया जाता है। अदालत आरोपी को बा-इज्जत रिहा कर देती है। पर वह उसे वह इज्जत लौटा नहीं पाती जिसका हरण हो चुका है। राजनीति की बात करें तो ऐसे मामलों में फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि जनता का विश्वास किसके साथ है। यदि जनता को पकडऩे वाला आदमी ईमानदार लगता है तो वह उसके साथ बनी रहेगी। यदि जनता को लगता है कि पकडऩे वाला बदमाशी कर रहा है तो वह पीडि़त के साथ खड़ी नजर आएगी। केजरीवाल को मिली अंतरिम जमानत का यही सबसे बड़ा मुद्दा है। क्या जनता को केजरीवाल निर्दोष लग सकता है? देश की सर्वोच्च न्यायालय ने हालांकि कड़ी शर्तों के साथ केजरीवाल को अंतरिम जमानत दी है पर साथ ही एक महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा – इस मामले में 26 नवंबर 2022 से जांच शुरू हुई। प्रवर्तन निदेशालय ने अब तक 4 अनुपूरक अभियोजन शिकायत दायर की है। केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने एक आरोपपत्र के अलावा दो पूरक आरोपपत्र दायर किये हैं। इसके बावजूद अरविंद केजरीवाल के खिलाफ अब तक आरोप तय नहीं किए गए हैं। इसलिए न तो जमानत की अर्जी पर बहस हो सकती है और न ही फैसला सुनाया जा सकता है। यह कानून का वह पेंच है जिसके दम पर जांच एजेंसियां लोगों को सालों साल परेशान कर सकती हैं। दरअसल, देश में किसी भी मामले की सुनवाई कई स्तरों पर होती है। जनता की अदालत में किसी की गिरफ्तारी ही उसे दोषी मान लेने के लिए पर्याप्त होती है। घर या संस्थान पर छापा पडऩा ही इज्जत नीलाम कर देने जैसा होता है। कितनी नगदी, कितना सोना और कितनी जायदाद मिली, यही चर्चा का विषय बन जाता है। आरोपी के पक्ष को जानना गैरजरूरी माना जाता है। अब देखना यह है कि केजरीवाल की जेल से रिहाई को जनता किस रूप में लेती है।