हमारे बारे में
छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक विश्वसनीय न्यूज पोर्टल है, जिसकी स्थापना देश एवं प्रदेश के प्रमुख विषयों और खबरों को सही तथ्यों के साथ आमजनों तक पहुंचाने के उद्देश्य से की गई है।
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-दीपक रंजन दास
देश इन दिनों त्रेता के रंग में रंगा हुआ है. पर ये सब सिर्फ बातें हैं, बातों का क्या? त्रेता में बड़ा भाई अपने छोटे के लिए सिंहासन छोड़ जाता है तो छोटा सिंहासन पर खड़ाऊं रखकर राज पाट चलाता है. उर्मिला ससुराल के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने पीछे रह जाती है तो उसका पति लक्ष्मण बड़े भाई का सहयोग करने स्वतः वनवास को स्वीकार कर लेता है. मेघनाद और कुंभकर्ण जैसे पुत्र और भाई – ज्ञान बांटकर पाला नहीं बदल लेते. वह दौर और था, यह दौर और है. कलियुग में त्रेता-द्वापर में सहयोग और सहकार की जो थोड़ी बहुत झलक दिखाई देती थी, वह सहकारिता में थी. सहकारिता से बड़े-बड़े कार्य संभव हुए. भिलाई में इस्पात कर्मचारी कोआपरेटिव, भिलाई नागरिक सहकारी बैंक, प्रगति महिला सहकारी बैंक, स्मृति गृह निर्माण समिति – ने सहकारिता की ऐसी नींव रखी जो आज भी अपना परचम लहरा रहे हैं. कृषि के क्षेत्र में सहकारिता की शुरुआत भी ग्राम तिरगा झोला से हुई. जिला केन्द्रीय सहकारी बैंक और उसकी अजस्र शाखाएं भी सफलता की कई इबारतें लिख चुकी हैं. पर जो काम रेलवे ने किया, उसकी मिसाल दुर्लभ है. अंग्रेजों के शासनकाल में ही इसकी नींव रख दी गई थी. 1909 में चार सदस्यों और तीन कर्मचारियों की मदद से रेलवे को-ऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटी की स्थापना हुई. इसका उद्देश्य रेलवे कर्मचारियों को सूदखोरों के चंगुल से बचाना था. 2023-24 में इस बैंक ने 100 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ अर्जित किया है. पिछले दस साल में यह बैंक अपने डेढ़ लाख सदस्यों को 120 करोड़ का लाभांश बांट चुका है. 115 साल पहले शून्य से शुरू हुआ यह सफर आज 2500 रुपए के वर्किंग कैपिटल का विशाल कारोबार है. इस बैंक में रेलवे कर्मचारियों के बच्चों को ही नौकरी दी जाती है. यह सहकारिता ही थी जिसने महिला स्व-सहायता समूहों को एक नई पहचान दी. किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक-एक दो-दो रुपए की बचत और आपस में मिलजुल कर संकटों से जूझने की यह प्रवृत्ति किसी दिन सफलता की ऐसी इबारतें भी लिखेंगी. राजनांदगांव के सुकुलदैहान की बहू – पद्मश्री फुलबासन बाई यादव और उनके मां बम्लेश्वरी स्व-सहायता समूहों ने सहकार से सफलता की वह कहानी लिखी जिसपर किसी भी देश को नाज हो सकता है. इस समूह से आज 2 लाख से अधिक महिलाएं जुड़ी हैं. दो लाख महिलाएं, अर्थात दो लाख परिवार. इसकी ताकत का अंदाजा केवल इसी बात से लगाया जा सकता है कि यदि सभी सदस्यों को कोई टाफी भी बेचना चाहे तो वह होलसेल व्यापारी बन जाए. पर ऐसी सफलता की कल्पना केवल उन्हीं लोगों के बीच की जा सकती है जिनकी जिन्दगी हाथ से मुंह के बीच शुरू होती है और वहीं खत्म हो जाती है. जिनके पास आय को नियमित जरिया है वो तो क्रेडिट कार्ड और पर्सनल लोन पर जीते हैं. तमाम शिक्षा और ज्ञान भी उन्हें सूदखोरों से नहीं बचा पाता.