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Gustakhi Maaf: आमदनी अठन्नी, खर्चा पांच रुपैया


-दीपक रंजन दास
1968 में एक फिल्म आई थी, तीन बहुरानियां. इस फिल्म का एक गीत था ‘आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया’. इसे स्वर दिया था आशा भोंसले, महेन्द्र कपूर और मन्ना डे ने. यह गीत अपने समय में काफी लोकप्रिय हुआ. 2001 में एक फिल्म आई जिसका नाम था – आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया. पर जो साजा विधायक ने किया है, वह तो इस फिकरे को ईजाद करने वालों की कल्पना से भी परे थे. साजा विधायक ईश्वर साहू की सालाना कमाई 25 हजार रुपए है. ऐसी जानकारी स्वयं उन्होंने निर्वाचन आयोग को दी थी. यह बीपीएल श्रेणी से थोड़ा ही ऊपर है. अर्थात महीने में दो-अढ़ाई हजार रुपए कमाते थे ईश्वर साहू. दिसम्बर 2023 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें प्रत्याशी बनाया गया तो उन्होंने व्यक्तिगत खाते से लगभग 36 लाख रुपए खर्च कर दिए. यहां बता दें कि इसी चुनाव में विष्णुदेव साय ने लगभग 30 लाख, बृजमोहन सिंह ने लगभग 19 लाख, पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने लगभग 31 लाख रुपए खर्च किये थे. साय अब मुख्यमंत्री हैं और बृजमोहन सिंह केबिनेट मंत्री. अब यह रकम कहां से आई, इसका पता लगाना हमारा काम नहीं है. पर कुछ तथ्यों की तरफ इशारा किये बगैर मन नहीं मानता. जिन हालातों में ईश्वर साहू को प्रत्याशी बनाया गया था, उनकी जीत लगभग पक्की मानी जा रही थी. छत्तीसगढ़ में लंबा दांव खेलने वालों की कोई कमी नहीं है. यहां तरह-तरह के पोंजी स्कीम भी खूब चलते हैं. महादेव बुक में तो छत्तीसगढ़ का यह इलाका पूरे देश पर छा गया था. लिहाजा जीतने वाले प्रत्याशी पर लोगों ने आंख मूंद कर रकम लगाई हो तो आश्चर्य की कोई बात नहीं होनी चाहिए. इसमें से काफी रुपया उनपर न्यौछावर किया गया होगा जिसे लौटाने की भी जरूरत नहीं होगी. राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले चुनावों में कार्पोरेट वर्ल्ड भी ऐसा ही करता है. बड़ी मेहनत से हासिल आजादी और उसके बाद अपनाए गए समाजवादी लोकतंत्र के मॉडल ने हमें वैश्विक पहचान भले ही दिला दी लेकिन लोकतंत्र की गाड़ी अब पैसों पर चलने लगी है. यह स्वाभाविक नेतृत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है. खास तौर पर जिस तरह से सरकारी मशीनरी का उपयोग विरोधी स्वरों को कुचलने के लिए किया जा रहा है, वह भी लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है. वैसे कह सकते हैं कि यह लोकतंत्र का एक नया मॉडल है. इसमें प्रत्याशी जनता के बीच का तो होता है पर वह जनता का नहीं होता. वह पार्टी का होता है. पार्टी बदलते ही आदमी की जात बदल जाती है. कल का चोर आज का साहूकार बन जाता है. अदृश्य ताकतें उसकी घोड़ी-बारात का पूरा इंतजाम करती हैं. चुनाव जीतने के बाद यही अदृश्य शक्तियां बैताल बनकर उसे चलाती हैं. देश धोखे में रहता है कि उसने तो अपना आदमी चुना था जो चुनाव जीतते ही पराया हो गया. इससे स्वाभाविक नेतृत्व के उभरने के रास्ते बंद हो जाते हैं.