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Gustakhi Maaf: एक बार फिर बाजारवाद के खिलाफ खड़ा हुआ धर्म


-दीपक रंजन दास
भारत एक ऐसा देश है जहां जीवनोपयोगी हर वस्तु की प्रचुरता है. यहां विकसित प्रत्येक धर्म सादगी, शुचिता और सेवा को प्रधानता देता है. “सादा भोजन-उच्च विचार” के इस देश को पिछले कुछ दशकों में बाजारवाद ने अपने चपेट में ले लिया है. लोगों की जरूरतें इतना बढ़ा दी गई हैं कि अपनी आवश्यकता से चार गुना कमाने वाला व्यक्ति भी कर्ज का बोझ ढो रहा है. इसका लाभ उठाते हुए निजी बैंकों और फाइनेंस कंपनियों ने अपना महाजाल बिछा दिया है. क्रेडिट कार्ड और पर्सनल लोन बांटने के लिए फिन कंपनियों से लेकर बैंक तक उतावले हुए पड़े हैं. मोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, टू-व्हीलर, फोर व्हीलर के बाजार में बहार आई हुई है. शिक्षा से लेकर शादी तक सबकुछ ऋण और ब्याज पर चल रहा है. कभी सूदखोरों से बचाने के लिए बैंकों की स्थापना की गई थी जहां मामूली ब्याज पर लोगों को ऋण मिल जाया करता था. अब सूदखोर तो कम हो गये पर बैंक ऐसा स्कीम लेकर आ गए जिसमें तीन साल में ऋण पर ब्याज मूलधन के बराबर हो जाता है. पर बाजारवाद की गिरफ्त में फंसे लोगों का इसकी तरफ ध्यान नहीं है. हो भी कैसे. सादगी और बचत में यकीन करने वाला भारतीय समाज अब दिखावे की ओर कूच कर गया है. बाजारवाद ने उसकी जरूरतें इतनी बढ़ा दी हैं कि शहर की तंग गलियों में रहने वाले भी एसयूवी और एक्सयूवी खरीद रहे हैं. गलियों में पार्किंग के लिए झगड़े हो रहे हैं और सड़कें पार्किंग में तब्दील हो रही हैं. शौक हैं कि इसके बाद भी कम नहीं होते. ऐसे में सिख समाज ने एक बार फिर पहल की है. छत्तीसगढ़ सिख पंचायत ने गुरुद्वारों को फिजूलखर्ची और दिखावे से अलग रखने का फैसला लिया है. पंचायत का निर्णय है कि अब गुरुद्वारों में केवल लावा फेरों की रस्म ही निभाई जाएगी. इसमें जोड़ा सादे वस्त्रों में अर्थात सलवार सूट में ही शामिल होगा. यहां जयमाल जैसी कोई रस्म नहीं होगी. सिख परिवारों में मृत्यु होने पर गुरुद्वारे में सादा लंगर ही आयोजित किया जा सकेगा. इसमें पकवान या मीठा शामिल नहीं किया जाएगा. इस लंगर के खर्च में सभी संगत अंशदान कर सकेंगे. इससे किसी भी परिवार पर बोझ नहीं पड़ेगा. गुरुद्वारों की तरफ से फिजूलखर्ची के खिलाफ आया यह कोई पहला फरमान नहीं है. पिछले तीन दशकों में अकालतख्त ने ऐसे कई नियम बनाए हैं जो वैवाहिक खर्च को कम करने की कोशिश करते दिखाई देते हैं. भारतीय समाज में विवाह एक ऐसी रस्म है जिसमें लोग वर्षों की कमाई दो-चार दिन के दिखावे पर फूंक देते हैं. शानदार शादी और शानदार दावत का यह बुखार कुछ ऐसा है कि परिवार कर्ज में डूब जाते हैं. समाज लड़की वालों पर इतना दबाव बनाता है कि लड़की होना ही अभिशाप लगने लगता है. वक्त आ गया है कि अन्य समाज भी इस दिशा में अपनी कोशिशें प्रारंभ करे.