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Gustakhi Maaf: जज्बा और क्षमता की गहरी होती खाई


-दीपक रंजन दास
एक जमाना था, 95 फीसदी पुरुष अपनी पत्नियों और बच्चों को साइकिल पर बिठाकर 10-20 किलोमीटर चले जाते थे। विकसित भारत में ऐसे पुरुषों की संख्या 15-20 फीसद ही बची होगी जो खुद साइकिल चलाकर 20 किलोमीटर चले जाएं। इनमें से भी अधिकांश श्रमिक ही होंगे जो दिन भर में बौद्धिक कम और कायिक श्रम अधिक करते हैं। कुछ लोग शौकिया साइकिल चलाते हैं पर इनकी साइकिलें भी विशेष प्रकार की होती हैं जिसमें आरामदायक सीट और हैण्डल के अलावा अधिकतम मेकानिकल एफिशियेंसी के लिए कई प्रकार के गियर्स का संयोजन होता है। निम्नमध्यम वर्गीय परिवारों के लोग भी अब साइकिल नहीं चलाते। आभिजात्य वर्ग में साइकिल अब कुछ-कुछ शौक और कुछ-कुछ मजबूरी बन गई है। मजबूर वो लोग हैं जिन्हें डाक्टर ने साइकिल चलाने की सलाह दी है। शौकिया लोगों में वो लोग शामिल हैं जिन्हें प्रात: भ्रमण में जूते चटखाना पसंद नहीं है। साइकिल का जिक्र इसलिए कि आज की चर्चा जज्बातों और क्षमताओं के बीच की बढ़ती खाई को पाटने पर केन्द्रित है। नया रायपुर के खुटेरी जलाशय में कलिंगा विश्वविद्यालय के तीन छात्र डूब गए। पहला बच्चा पैर फिसलने के कारण गहरे पानी में चला गया। उसके एक साथी ने उसे बचाने की कोशिश की तो वह भी डूबने लगा। तीसरा इन दोनों को बचाने की कोशिश में स्वयं भी डूब गया। अपने दोस्त की जान बचाने का जज्बा तो सभी में था पर क्षमता संभवत: किसी में नहीं थी। नल जल के इस युग में बहुत कम बच्चे नदी या तालाबों में नहाते हैं। तरणताल की सुविधा भी कुछ ही शहरों में है। वहां भी यह सुविधा मु_ीभर लोगों को ही उपलब्ध है। इसलिए कहा जा सकता है कि आज की आबादी का एक बड़ा हिस्सा तैराकी के हुनर से अनजान है। उसे तो इस बात का अहसास तक नहीं है कि पानी में उतरने के बाद पैरों तले जमीन नहीं होती और थल का पहलवान भी वहां असहाय हो जाता है। वहां जज्बात से ज्यादा काम आता है तैरने का हुनर। केवल तैरना ही काफी नहीं है, डूबते को बचाने के लिए स्वयं को सुरक्षित रखते हुए बचाव कार्य करना पड़ता है। खुटेरा जलाशय में जो कुछ भी हुआ, वह पहली बार नहीं हुआ। ऐसी घटनाएं अकसर होती रहती हैं। विशेषकर विद्यार्थियों के जलाशय या नहर में डूब जाने की घटनाएं तो आम हो चली हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आधुनिक जीवन हमें पंगु बना रहा है? अंग्रेजी माध्यम के कुछ निजी स्कूलों में कथित तौर पर तैराकी का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके लिए अलग से फीस भी ली जाती है और बच्चों को रंग-बिरंगे स्विम सूट भी पहनाए जाते हैं। फिर उन्हें प्लास्टिक के कथित तरणतालों में छोड़ दिया जाता है जिनमें हद से हद कमर तक पानी होता है। तैराकी एक लाइफ स्किल है, इसका मजाक न बनाएं। तैरना नहीं आता तो पानी से दूर रहें।