हमारे बारे में
छत्तीसगढ़ प्रदेश का एक विश्वसनीय न्यूज पोर्टल है, जिसकी स्थापना देश एवं प्रदेश के प्रमुख विषयों और खबरों को सही तथ्यों के साथ आमजनों तक पहुंचाने के उद्देश्य से की गई है।
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-दीपक रंजन दास
वैसे तो इस शब्द पर ही आपत्ति की जा सकती है। तस्करी कैसी? क्या किसी भी उम्र के लोगों के एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने पर कोई कानूनी रोक है? रोजगार सभी का अधिकार है। ढंग का रोजगार किसी को मिलता नहीं। आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए जीवन यापन करना तक मुश्किल है। आदिवासी अंचलों की हालत तो और भी खराब है। यहां रोजगार के अवसर बेहद सीमित हैं। 70-80 के दशक तक यहां के लोग स्वयं में संतुष्ट थे। एक छोटी सी झोंपड़ी, आठ-दस घर का गांव, कुछ बकरियां, कुछ मुर्गियां, सल्फी-महुआ के एक दो पेड़ उनके लिए अथाह संपत्ति हुआ करते थे। पेट भरने के लिए जंगल थे, कुछ सब्जियां घर पर उगा लेते थे। मुर्गी, बकरी, महुआ-सल्फी बेचकर कुछ नगदी भी मिल जाती थी। पर नई पीढ़ी जानवरों की तरह केवल पेट भरकर और बच्चे पैदा कर अपने जीवन की इतिश्री नहीं करना चाहती। अब उनमें भी शहर जाकर अच्छा जीवन जीने की ललक है। बड़ी संख्या में ये अल्प-शिक्षित बच्चे उन लोगों के घरों में काम करते हुए मिल जाएंगे जो कभी न कभी इन आदिवासी अंचलों में रहे हैं। इनमें शिक्षक, बैंक कर्मी से लेकर उच्च पदस्थ प्रशासनिक अधिकारी सभी शामिल हैं। समय-समय पर ऐसे मामलों का खुलासा भी होता रहा है। बच्चों के माता-पिता को तो वह यही बताते हैं कि बच्चा उनके बच्चों के साथ रहेगा, पढ़ेगा-लिखेगा और समय आने पर उसके विवाह का खर्च भी परिवार उठाएगा। कुछ बच्चों को वाकई अच्छा माहौल मिलता है और वो पढ़-लिखकर कुछ बन भी जाते हैं। पर यह सब उस बच्चे की व्यक्तिगत जिजीविषा पर निर्भर करता है। अधिकांश बच्चों का जीवन नष्ट हो जाता है। वे 24 घंटे के घरेलू नौकर बनकर रह जाते हैं। उन्हें रोटी, कपड़ा और छत तो मिल जाती है पर भविष्य पर कोहरा छाया रहता है। उनके हिस्से का पैसा भी अकसर उनके माता-पिता को दे दिया जाता है। उनके हाथ केवल जेब खर्च ही लगता है। एक उम्र के बाद ये बच्चे शहरी परिवारों के लिए भी बोझ बन जाते हैं। वो उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं। इन बच्चों के लिए गांव के रास्ते बंद हो जाते हैं। शहर में रही हुई लड़की से गांव का लड़का विवाह नहीं करना चाहता। लिहाजा वे शहरों में कटी पतंग की तरह भटक जाती हैं। ऐसे मामलों की कोई पुलिस रिपोर्ट तक नहीं होती। सरकार और समाज, दोनों ने इस व्यवस्था को मान लिया है। दिक्कत तब होती है जब गांव से समूह में बच्चे गायब हो जाते हैं और परिवार का उनसे सम्पर्क टूट जाता है। ऐसा तब होता है जब बच्चे दिल्ली, मेरठ, गाजियाबाद, चंडीगढ़, गुरूग्राम, जैसे किसी बड़े शहर में चले जाते हैं जहां जाकर उन्हें तलाश करना मुश्किल होता है। तब कहीं जाकर पुलिस में शिकायत होती है। समाज के सक्रिय सहयोग के बिना इस स्थिति से निपटना कतई संभव नहीं लगता।