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Gustakhi Maaf: भगदड़ में गंवाई जान


-दीपक रंजन दास
बाढ़ में लोग बह जाएं, भूकम्प के मलबे में दबकर मौत हो जाए, अग्निकांड में लोगों की जानें चली जाएं या युद्ध जैसी स्थिति में प्राण गंवाने पड़ें तो भी बात समझ में आती है। पर यहां तो लोग पुण्य कमाने गए थे और मोक्ष मिल गया। लगभग सवा सौ लोगों ने साथी श्रद्धालुओं के पैरों तले दबकर अपने प्राण गंवा दिये। किसी भी सत्संग के लिए इससे ज्यादा दु:खद कोई घटना नहीं हो सकती। प्रशासन ने आयोजन स्थल पर 80 हजार लोगों के लिए अनुमति प्रदान की थी। पर यहां लगभग ढाई लाख लोग इका हो गए। चुपचाप सत्संग करते और निकल जाते तो शायद यह नौबत नहीं आती। पर महिलाओं में बाबा के चरणरज लेने की होड़ मच गई। इसी को अंधश्रद्धा कहते हैं। जो लोग अपने माता-पिता के पैर केवल त्यौहारों पर छूते हैं वो भी बाबाओं के पैरों में लोटकर न जाने क्या हासिल करने की कोशिश करते हैं। दरअसल धर्म के नाम पर यह पाखंड पिछले कुछ वर्षों में सिर चढ़ कर बोल रहा है। प्रवचन सुनने और सत्संग करने लाखों लोगों की भीड़ इका होती है। कई बार तो आयोजन ही कई-कई दिनों तक चलता रहता है। पहले भीड़ जुटाने की होड़ केवल नेताओं में होती थी। भीड़ जुटाने की क्षमता के आधार पर कार्यकर्ताओं की पूछ-परख होती थी। पर अब यह होड़ बाबाओं में लगी है। टीआरपी का सवाल है। जिसके पंडाल में जितने ज्यादा लोग उसका उतना बड़ा रसूख। उसकी उतनी ज्यादा कमाई। इन बाबाओं की कमाई का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि इनके पास अपने बाउंसर, अपने बॉडीगार्ड यहां तक कि अपनी सेना भी होती है। आयोजनों में भीड़ को संभालने की जिम्मेदारी इन्हीं लोगों की होती है। इनके तौर-तरीकों पर कोई टिप्पणी करने की बजाय उस बात पर आते हैं जो उन्होंने किया। चरणरज लेने के लिए उतावली हुई महिलाओं पर उन्होंने वाटर कैनन चला दिया। इसका उपयोग पुलिस और अद्र्धसैनिक बल ही दंगाइयों और प्रदर्शनकारियों के खिलाफ करते हैं। इससे बचने की कोशिश में लोग भागने लगे और भगदड़ की स्थिति बन गई। किसी ने नहीं पूछा कि इंसानों के साथ ऐसा सलूक करने का अधिकार बाबा की निजी सेना को किसने दिया। पूछा तो यह भी जाना चाहिए कि इन बाबाओं के पास इतना पैसा आता कहां से है? क्यों लोग इन्हें इतना मोटा चंदा देते हैं? क्यों बिना बात के इतनी भीड़ लगाने की इजाजत दी जाती है जिसमें पुलिस प्रशासन को भी झोंकना पड़ जाता है? दरअसल, देश की शिक्षा व्यवस्था तो लचर थी ही अब सोशल मीडिया ने उसे और भी भोथरा कर दिया है। बहुत पढ़े लिखे लोगों से भी अब तर्कसंगत विचारों की उम्मीद नहीं की जा सकती। पहले माना जाता था कि गरीबी औऱ भुखमरी कम होगी तो देश की उत्पादकता बढ़ेगी। यह बढ़ी है उत्पादकता। लोग बाबाओं के पैरों पर गिरने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं।