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Gustakhi Maaf: मातृभाषा में शिक्षा और अंग्रेजी का शौक


-दीपक रंजन दास
थॉमस बैबिंगटन मैकाले ने 2 फरवरी 1835 में भारत की आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की नींव रखी. तब से अब तक कई परिवर्तनों के साथ यही शिक्षा पद्धति चल रही है. इस शिक्षा व्यवस्था पर बाबू पैदा करने के आरोप भी लगे. पर यह भी सही है कि इसी शिक्षा पद्धति ने अंग्रेजी और हिन्दी के साथ-साथ लगभग सभी भारतीय भाषाओं में ऐसे-ऐसे रचनाकार पैदा किये जिन्होंने साहित्यजगत में हलचल मचा दी. दरअसल, एक से अधिक भाषा के जानकारों के पास पढ़ने को ज्यादा सामग्री उपलब्ध होती है. एक ही भाषा जानने वाले के लिए किसी भी विषय के साहित्य का यह संसार सिमटा हुआ होता है. भारतीय शिक्षा जगत पिछले कई दशकों से प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में कराने की सलाह देता आ रहा है. जाहिर है कि वे मातृभाषा के समानान्तर किसी दूसरी भाषा को स्थापित करने में असफल रहे हैं. इस असफलता की एक बड़ी वजह भी है. भाषा शिक्षण के तमाम विशेषज्ञ इस बात को लेकर मानसिक द्वंद्व में हैं कि एक भाषा की प्रभावी शिक्षा किस तरह से दी जाए. यहां कुछ बातों का उल्लेख अप्रासंगिक न होगा. बच्चा अपनी मातृभाषा घर पर सीखता है. वह भी बिना ग्रामर के. उन क्षेत्रों में मातृभाषा पर उसकी पकड़ अच्छी होती है जहां न केवल उसके घर पर बल्कि मोहल्ले में भी उसकी मातृभाषा ही बोली जाती है. भिलाई जैसे कास्मोपॉलिटल शहर में दक्षिण भारतीय परिवारों को छोड़कर शेष भारतीय परिवारों के बच्चे अपनी मातृभाषा भी ठीक से नहीं बोल पाते. लिखना-पढ़ना तो बहुत दूर की बात है. दरअसल, भाषा सीखने का सबसे सरल और प्रभावी तरीका है, उसे सुनना. शिशु अपने आसपास जिन शब्दों-ध्वनियों को सुनता है, उन्हें ही दोहराता है. जिन बच्चों से लोग स्नेहवश तोतली भाषा में बात करते हैं वो कदरन ज्यादा उम्र तक तोतलाते हैं. जिन स्कूलों में अंग्रेजी भी हिन्दी में पढ़ाई जाती है, वहां के बच्चे कभी अंग्रेजी नहीं बोल पाते. जिन स्कूल-कालेजों में रटे-रटे प्रश्नोत्तरों और ग्रामर पर फोकस किया जाता है, वहां के बच्चे बेशक अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो जाते हैं पर भाषा वो भी नहीं सीख पाते. पिछली सरकार ने इस दुविधा पर आंशिक रूप से काबू पा लिया था. उसने आत्मानंद उत्कृष्ट विद्यालयों की शुरुआत की और इनमें अंग्रेजी माध्यम के भी स्कूल खोले. अंग्रेजी माध्यम स्कूलों के लिए इंग्लिश मीडियम की अनिवार्य शर्त पर टीचर नियुक्त किये गये. अब नई सरकार प्रदेश के सभी 32 हजार प्रायमरी स्कूलों में पहली से अंग्रेजी भाषा पढ़ाने जा रही है. अभी भी बच्चे छठवीं से अंग्रेजी पढ़ते हैं. छठवीं से 12वीं तक स्कूल में, फिर ग्रेजुएशन के तीन साल तक भाषा की पढ़ाई पूरी नहीं हो पाती. अर्थात 10 साल तक अंग्रेजी पढ़ने के बाद भी न तो उसे ग्रामर आती है और न भाषा. सरकार यदि वाकई चाहती है कि सरकारी स्कूलों के बच्चे भी अंग्रेजी बोलें तो उसे अध्यापन में अंग्रेजी का उपयोग बढ़ाना होगा.