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Gustakhi Maaf: हवा में धूल-वायरस, कानों में सीसा


-दीपक रंजन दास
शहरी जीवन के भी अपने ही मजे हैं। कल-कारखानों से ज्यादा धुआं छोड़ते वाहन, मैदानों से ज्यादा सड़कों पर उड़ती धूल ने जहां सांस लेना मुश्किल कर रखा है वहीं शोर-शराबे के कारण ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई कानों में गर्म सीसा डाल रहा हो। बात करना तो दूर, सोचने-समझने की शक्ति तक जाती रहती है। तथाकथित डीजे की धमक तो पेट में पड़ी अंतडिय़ों तक को नचा देती हैं। ऐसे में जब डीजे बैन करने की खबर आती है तो लगता है कुंभकर्ण नींद से जागा है। 10वीं-12वीं की परीक्षाओं की समयसारिणी की घोषणा के साथ ही रायपुर में प्रशासन ने डीजो को बैन कर दिया है। थोड़े ही समय में छोटे-बड़े अन्य शहरों से भी इस तरह की खबरें आने लगेंगी। दरअसल, सभी ने यह मान लिया है कि पढ़ाई लिखाई केवल परीक्षाओं के दौरान ही की जाती है। साल के बाकी दिन सभी के लिए मौज-मस्ती के होते हैं। उन्हें क्या पता कि कठिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में अनेक विद्यार्थी दिन-रात पढऩे-लिखने और अभ्यास करने में ही लगे रहते हैं। उन्हें खाने-पीने तक की सुध नहीं रहती। पार्टी और सेलीब्रेशन से भी वो दूर ही रहना पसंद करते हैं। सवाल अकेले विद्यार्थियों का नहीं है। शोरगुल सभी लोगों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर असर डालता है। फोन पर बातें करना तो दूर, आमने-सामने खड़े होकर भी वार्तालाप करना मुश्किल हो जाता है। जरूरी कॉल अटेंड करने के लिए लोग इधर-उधर भागते-फिरते हैं, बातचीत करने के लिए भी डीजे से दूर जाने की कोशिश करते हैं। कहने को तो डीजे भी संगीत ही है पर यह सुकून कम और दर्द ज्यादा देता है। दर्द यह भी है कि यह सब खुले में होता है। आध्यात्म के इस देश में यह शोर-शराबा अब धार्मिक आयोजनों का भी अभिन्न हिस्सा है। विदेशों में शोर-शराबा पब या क्लब में होता है। जिसे तेज म्यूजिक पर नाचना हो, वह पैसे देकर भीतर जाता है, नशा-पानी करता है, पागलों की तरह नाचता है। क्लब या पब के बाहर इसकी भनक तक नहीं लगती। सार्वजनिक स्थलों की शांति बनी रहती है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि बढ़ती आबादी और भविष्य की अनिश्चितता ने लोगों के मन में ऐसा उथल-पुथल मचा रखा है कि शोर-शराबे के बीच वह खुद को भूल जाना चाहता है। यह भी एक तरह का पलायन है। आंखें बंद कर लेने से खतरा टल नहीं जाता। इस नकारात्मक माहौल में रोशनी की एक पतली सी किरण दिखाई देती है। कैरीओकी ट्रैक्स ने गायन को आसान बना दिया है। संगीत प्रेमियों के समूह बन रहे हैं। फिल्मी गीतों, कव्वालियों, भजनों और गजलों के शौकीन अब खुद अपने पसंदीदा गीतों को गाने की कोशिश कर रहे हैं। इनकी पार्टियों में अब डीजे नहीं बजता, वहां गीत गाए जाते हैं। वैसे तो यह 45 पार के लोगों का शगल है पर अब युवा पीढ़ी भी इससे जुडऩे लगी है।